Tuesday, April 10, 2007



किताबो में सिमटी हुई थी
जब अचानक हलके से कंधो को थपथपाया किसीने
पीछे मुड़ के देखा तो
देखा वक़्त मुस्कुरा रहा था
दस्तक सा देकर ज़रा कुछ देर के लिए पीछे बुला रहा था


उंगलिया पकड़ के थमा दी माँ की उगलियों में मेरी
छुडा के जिसे दौड़ रही थी घर के आंगन में हमारी
माँ के एक हाथ मे लंबी छड़ी थी,
दुसरे मे खाने का निवाला जिसे छोड़
निडर बावरी जैसी भागे जा रही थी

वक़्त ने फिर खीच लिया
उस कमरे मे मुझे
जहां हाथों मे अखबार लिए पापा चाय की sip ले रहे थे
जब लिपट कर चहरे से उनके, खिलखिला रही थी महसूस कर रूखे रूखे दाढ़ी को उनकी

नन्ही सी जान के साथ अपनी वे भी मुस्कुरा रहे थे

समेट ही रही थी उन लम्हों को

कि वक़्त ने ले गिराया रेतों मे मुझे
जहां सहेलियों के साथ पुरे बदन में मिटटी सनाये रेतों के घर बना रही थी

घुप अंधेरो में टिमटिमाते तारों को निहार रही थी उन्ही रेतों मे लेटे ठुड्डी को हाथों मे दबाये

वक़्त ने फिर ले बिठाया तेज़ सूरज के किरणों के नीचे
जब सर पर किसी कि मार से
अचानक लगा बालों को कस के पकड़े हुए था कोई
जाड़ों कि धुप मे दीदी
तेल कि बोतल लिए हुए हाथों में
शायद डांट सी रही थी
चोटी बनाते हुए दिल्लागियों पे मेरे ताने सुना रही थी






दोनो चोटियों को उड़ाते हुए हवाओं में
गुनगुनाते हुए साइकिल को खूब तेज़ चला रही थी
मुहल्ले में जाने कहा कहा रूक कर कर जंगली फूलों के रस चूस रही थी


फिर जाने क्या हुआ

नज़र धुंधला सी गयी मेरी
धुल समझ के जिसे आखों से निकाल रही थी
तो पाया गालों में ओस कि बूंदों कि तरह भीगे
लम्हे डबडबाती आखों से छलक रहे थे

खोजती आंखों ने खबर लेनी चाहि जब वक़्त कि
जो अब तक यु मुझे भगा रह था
तो देखा कि वक़्त बीत चूका था ...
आधे अधूरे सपनो के बीच छुपे दूर खड़े अब भी मुस्कुरा रहा था



दीवार पर सर टिकाए हुए
पलकों को झुकाया ज्यो ही
माँ कि छड़ी ,पापा कि दाढ़ी , डांट दीदी की
सर को मेरे अब भी तो सहला ही रही थी

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